लोगों की राय

भाषा एवं साहित्य >> सूत न कपास

सूत न कपास

धर्मवीर

प्रकाशक : वाणी प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2003
पृष्ठ :251
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2900
आईएसबीएन :81-8143-003-4

Like this Hindi book 10 पाठकों को प्रिय

98 पाठक हैं

कबीर के कुछ नये आलोचकों का वर्णन...

Soot Na Kapas

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

 

कबीर पर अपनी पाँचवीं पुस्तक ‘कबीर के कुछ और आलोचक’ की भूमिका में मैंने कहा था कि उसमें मुसलमान लेखकों का अध्ययन नहीं हो सका है। अब उस कमी को पूरी करते हुए मेरी खुशी यह भी है कि इसमें एक कायस्थ विद्वान पर भी विचार हो गया है। ये दोनों काम मेरी योजना की चाहत के थे।

उस भूमिका में मैंने यह कहा था कि इस विषय पर डॉ. पुरुषोत्म अग्रवाल का लेखन मेरी निगाह में है। मैंने वायदा किया था कि मैं उनके लेखों का जवाब अलग से दे रहा हूँ। यह पुस्तक मेरे उस वायदे की भी पूर्ति है। विद्वतजन देखेंगे कि यह खानापूर्ति नहीं है।

डॉ. पुरुषोत्तम अग्रवाल के लेखन को ले कर दो खास मुद्दे बनते हैं जिनकी व्याप्त इतिहास में लंबी और संस्कारों में गहरी है। मुद्दे इस प्रकार हैं :

1. साहित्य-समीक्षा में झूठ से कैसे निबटा जाए जिसमें किंवदंती और प्रक्षिप्त दोनों झूठ के हिस्से हैं ?
2. आलोचना-साहित्य में प्रेम को व्याभिचार से अलग कैसे किया जाए क्योंकि कबीर के काव्य में परकीया-संबंध दंडनीय है ? उनके जारकर्म सृजन के बजाय अश्लीलता और साहित्यिक गुंडागर्दी है।

इस पुस्तक में इन दो विषयों पर विस्तार से चर्चा हो गई है। वैसे, प्रश्नोत्तरों की इस साहित्यिक चोंच लड़ाई के सिवा कबीर पर मेरा अपनी काम बदस्तूर जारी है। योजना में अगली तीसरी सीरीज का शीर्षक ‘महान आजीवक कबीर’ होगा। कितना अच्छा है कि ‘महान आजीवक कबीर’ में किसी की आलोचना नहीं है।

 

धर्मवीर

 

पहला भाग

कबीर बनाम अन्य

अध्याय-1

डॉ. रामकुमार वर्मा : कबीर से कटी बहस

 

डॉ. रामकुमार वर्मा की कबीर पर एक पुस्तक का नाम ‘कबीर का रहस्यवाद’1 है। इस पुस्तक में रहस्यवाद के नाम से उन्होंने पूरे कबीर को रहस्यमय बना दिया है। रहस्यवाद एक वाद है जिसका अध्ययन किया जा सकता है लेकिन खुद कबीर को रहस्यमय करना रहस्यवाद की परिभाषा के अंतर्गत नहीं आ सकता। डॉ. रामकुमार वर्मा ने ठीक यही गलती की है। जब वे कबीर के साहित्य की समीक्षा कर रहे हैं तो उन्होंने रहस्यवाद और रहस्यमय होने में फर्क नहीं किया। वे कबीर की कविता को रहस्यवादी कहने के लिए स्वतन्त्र थे लेकिन उनका यह काम नहीं था कि वे कबीर के जीवन को भी रहस्यमय करार दे दें या मान लें। किसी व्यक्ति की जीवन-दृष्टि कुछ भी हो सकती है, लेकिन उसके जीवन-वृत्त को रहस्यमय बनाने का मतलब क्या है ? पता चलता है कि डॉ. रामकुमार वर्मा ने किंवदंतीवाद को ही रहस्यवाद में तब्दील करके कबीर का अध्ययन किया है। उनका एक वाक्य उद्धृत किया जा सकता है—‘‘कविता की भाँति कबीर का जीवन भी रहस्य से परिपूर्ण है।’’2

यह उनकी पुस्तक का आखिरी पैरा और वाक्य है। यह पैरा इतना ही है। यही वे अपनी पुस्तक का पटाक्षेप कर देते हैं। इस पुस्तक की शुरुआत उन्होंने अपने इस वाक्य से की है—‘‘रहस्यवाद आत्मा की उस अन्तर्निहित प्रवृत्ति का प्रकाशन है जिसमें वह दिव्य और अलौकिक शक्ति से अपना शान्त और निश्छल संबंध जोड़ना चाहती है और यह संबंध यहां तक बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ भी अन्तर नहीं रह जाता।’’3
डॉ. रामकुमार वर्मा ने इस किताब को लिखने में कुछ तरीके अपनाए हैं। इन तरीकों में एक उन्होंने कबीर को अनपढ़ माना है। उन्होंने लिखा है :
1. ‘‘...कबीर निरक्षर थे....।’’4
2. ‘‘कबीर अपढ़ थे।’’5
3.‘‘...वह अपढ़ रहस्यवादी था, उसने ‘मसि-कादग’ छुआ भी नहीं था...।’’6

इसका मतलब है कि उधर जाया जा रहा है जहाँ कबीर के साहित्य की प्रामाणिकता सिद्ध नहीं की जा सकती। जो व्यक्ति जो चाहे मान ले। अपढ़ और रहस्यवादी-अर्थात् कबीर के बारे में कुछ भी कहा जा सकता है और कुछ भी नहीं कहा जा सकता। इस क्रम में दूसरी बात उन्होंने यह मानी है कि कबीर को जानना बहुत कठिन है। वे लिखते हैं :

1. ‘‘...कबीर का विश्लेषण बहुत कठिन है।’’7
2. ‘‘...लोग उसे अभी तक समझ ही नहीं सके हैं।’’8
3. ‘‘इसमें संदेह है कि कबीर की कल्पना के सारे चित्रों को समझने की शक्ति किसी में आ सकेगी अथवा नहीं।’’9

कहने का मतलब यह है कि कबीर के रहस्यवाद पर हाथ नहीं रखा जा सकता।
उन्होंने भविष्य के आलोचकों के लिए भी पत्थर पर लकीर खींच दी है कि कबीर को कोई नहीं जान सकता। यह प्रशंसा हो रही है या कबीर को जनता से काटा जा रहा है ? कबीर समाज के किसी काम के नहीं रह गए हैं। बस, उन्हें दीवार पर टाँगों और पूजा अर्चना करो।

डॉ. रामकुमार वर्मा की एक अन्य निर्विवाद प्रस्थापना है कि कबीर के गुरु रामानन्द थे। इसे मानने में उन्होंने शक तक नहीं किया। दूसरों ने शक किया तो तार्किक की तरह उनके मत का खंडन करते हैं। इस बारे में उन्होंने लिखा है :

1. ‘‘संत कबीर पर रामानंद की अद्वैतवादी विचारधारा का प्रभाव सबसे अधिक है।’’10
2. ‘‘रामानन्द का शिष्यत्व उनके हिंदू धार्मिक सिद्धांतों का कारण था...।’’11
3. ‘‘रामानंद के पैरों से ठोकर खाकर उषा-बेला में कबीर ने जो गुरु-मंत्र सीखा था उसमें गुरु के प्रति कितनी श्रद्धा और भक्ति थी ! राम-मन्त्र के साथ-साथ गुरु का स्थान कबीर के हृदय में बहुत ऊँचा था।’’12
4. ‘‘योग का जो कुछ भी ज्ञान उन्हें सत्संग और रामानंद आदि से प्रसाद-स्वरूप मिल गया होगा, उसी का प्रकाशन उन्होंने अपने बेढंगे पर सच्चे चित्रों में किया है।’’13

5. डॉ. रामकुमार वर्मा ने कबीर के गुरु रामानंद कैसे सिद्ध किए हैं ? तरीका वही किंवदंती का है। यह इस प्रकार है—‘‘कबीर बचपन से ही धर्म की ओर आकर्षित थे। वे भजन गाया करते थे पर ‘निगुरा’ (बिना गुरु के) होने के कारण लोगों में आदर के पात्र नहीं थे और उनके भजनों अथवा उपदेशों को भी कोई सुनना पसन्द नहीं करता था। इस कारण वे अपना गुरु खोजने की चिन्ता में व्यस्त हुए।


उस समय काशी में रामानंद की बड़ी प्रसिद्धि थी। कबीर उन्हीं के पास गए पर कबीर के मुसलमान होने के कारण उन्होंने उन्हें अपना शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया। वे हताश तो बहुत हुए पर उन्होंने एक चाल सोची। प्रातःकाल अँधेरे ही में रामानंद पंचगंगा घाट पर नित्य स्नान करने के लिए जाते थे। कबीर पहले से ही उनके रास्ते में घाट की सीढ़ियों पर लेट रहे। रामानंद जैसे ही स्नानार्थ आए वैसे ही उनके पैर की ठोकर कबीर के सिर में लगी। ठोकर लगने के बाद रामानंद के मुख से पश्चाताप के रूप में ‘राम’ ‘राम’ शब्द निकल पड़ा। कबीर ने उसी समय उनके चरण पकड़ कर कहा कि महाराज, आज से आपने मुझे ‘राम’ नाम से दीक्षित कर अपना शिष्य बना लिया। आज से आप मेरे गुरु हुए। रामानंद ने प्रसन्न हो कबीर को हृदय से लगा लिया। इसी समय कबीर ने रामानंद के शिष्य कहलाने लगे।’’14

चूँकि बाबू श्याम सुंदर दास ने अपनी पुस्तक ‘कबीर ग्रंथावली’ में माना था कि ‘केवल किंवदंती के आधार पर रामानंद को उनका गुरु मान लेना ठीक नहीं,15 है और ‘यह किंवदंती भी ऐतिहासिक जाँच के सामने ठीक नहीं ठहरती’16 तो पलट कर डॉ. रामकुमार वर्मा उनसे बहसबाजी करने लगते हैं और निर्णय देते हैं—‘‘कबीर...रामानंद का शिष्य बन सकता है।’’17 याद रहे,, रामानंद को कबीर का गुरु उन्होंने तब माना है जब वे स्वयं जानते हैं कि ‘...वैष्णवों की नवधा भक्ति के पदसेवन अर्चन, वंदन, दास्य, और सख्य आदि भक्ति का रूप कबीर की भक्ति में नहीं है।’18 निष्कर्ष है कि उन्हें अपनी बातों में कोई तालमेल नहीं बैठानी है। इसी के लिए वे इस बात की शुरुआत ले कर चले थे कि कबीर अपढ़ हैं और रहस्यवादी हैं।

कबीर पर डॉ. रामकुमार वर्मा की एक अन्य पुस्तक ‘संत कबीर’ के शीर्षक से है। यह पहली बार सन् 1943 में प्रकाशित हुई थी। इसकी प्रस्तावना में भी उन्होंने इस प्रश्न को उठाया है। इसमें उनका चिन्तन इस प्रकार चला है :
1. ‘‘प्रस्तुत ग्रंथ (आदि श्री गुरु ग्रंथ साहिब) के पद और ‘सलोक’ जो हमें लगभग प्रामाणिक मानना चाहिए रामानंद के नाम का कहीं उल्लेख नहीं करते।’’19
2. ‘‘इसमें कोई संदेह नहीं है कि कबीर ने अपने गुरु का नाम अपने काव्य में नहीं लिया है किंतु इसका कारण उनके हृदय में गुरु के प्रति अपार श्रद्धा का होना कहा जा सकता है। कबीर ने ईश्वर तथा विवेक को भी अपना गुरु कहा...किंतु इससे सिद्ध नहीं होता है कि कबीर का कोई मनुष्य-गुरु ही नहीं।’’20
3. ‘‘कबीर का गुरु में अटल विश्वास था। उन्होंने गुरु की वंदना अनेक प्रकार से ही है यद्यपि उन्होंने अपने गुरु के नाम का उल्लेख नहीं किया है। ज्ञात होता है यो गुरु रामानंद ही थे।’’21


प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai